कमलेश पांडे, नई दिल्ली।
वैश्विक दुनियादारी में चीन के बढ़ते कद और प्रभाव को काबू में करने के लिये भारत द्वारा किये जा रहे अथक राजनयिक प्रयत्नों से उपजी अंतरराष्ट्रीय कूटनीतिक चुनौतियों के चक्रव्यूह को हमारा दृढ़प्रतिज्ञ नेतृत्व जिस रणनीतिक सलीके से भेद रहा है, उसका अपना सामरिक और आर्थिक महत्व है। कहना न होगा कि इस परिप्रेक्ष्य में स्थापित किये जा रहे पारस्परिक सभ्यतामूलक सम्बन्धों के मूल में उदात्त सांस्कृतिक बोध और गहन समझदारी का जो भाव अंतर्निहित है, उससे इसके स्थायित्व के आसार भी प्रबल हैं। भारत-आसियान दिल्ली घोषणा पत्र 2018 इसका ताजा उदाहरण है।
यह समझौता इस बात को रेखांकित करता है कि यदि चीन से गाहे बगाहे टकराने की संभावना रखने वाले देशों को दूरगामी भारतीय हितों के लिहाज से साधा जाए, तो न केवल पारस्परिक जटिल रिश्तों की हर पहेली को उदारतापूर्वक सुलझाया जा सकता है, बल्कि इससे अर्जित कामयाबी आश्वस्त कर रही कि हमलोग अपनी प्रतिरक्षात्मक रणनीति में अवश्य कामयाब होंगे। दरअसल, मोदी सरकार जिस सलीके से कतिपय महत्वपूर्ण राष्ट्रीय-अंतरराष्ट्रीय अवधारणाओं को व्यवहारिक अमलीजामा पहना रही है, उससे विगत साढ़े तीन वर्षों में दर्जनाधिक महत्वपूर्ण कूटनीतिक कामयाबियाँ मिलीं हैं और निकट भविष्य में कुछ और कामयाबी भी मिलेगी।
इस बात में कोई शक नहीं कि विस्तारवादी देश चीन पर लगाम लगाना भारत के लिये अब अनिवार्य बन चुका है, क्योंकि वह पाकिस्तान के नए रहनुमा के तौर पर अंतरराष्ट्रीय मंचों पर उभर रहा है, जो हमारे लिये आतंकी दुश्चिंताओं और सामरिक खतरों का सबब बन चुका है। यही नहीं, जिस तरह से चीन संयुक्त राष्ट्र संघ में आतंकवाद पर घिरते पाकिस्तान की तरफदारी करता, संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद में भारत की स्थायी सदस्यता का विरोध करता, परमाणु आपूर्तिकर्ता देशों के समूह में भारत को शामिल करने के प्रयासों का पूरजोर विरोध करता और कभी कभी वीटो तक का भी प्रयोग करता है, वह भारत के लिये न केवल चिंता का विषय है, बल्कि उसकी रणनीतिक काट खोजना भी अब नितांत जरूरी बन गया है।
यही वजह है कि भारत भी चीन की भारत विरोधी डायमंड रिंग पालिसी और वन बेल्ट-वन रूट पालिसी की जबरदस्त काट कर रहा है और उससे स्थायी बचाव के निमित्त वैकल्पिक रणनीति को भी तरजीह दे रहा है, जिससे चीन की बौखलाहट बढ़ती जा रही है। खास बात यह कि जिस तरीके से भारत पहले अपने पड़ोसी सार्क देशों, फिर सभ्यतामूलक आसियान राष्ट्रों, पुनः रणनीतिक सुदूर पूर्व के मित्रों यथा-जापान-दक्षिण कोरिया आदि, पश्चिम एशिया के इजरायल समेत अरब मुल्कों, आस्ट्रेलिया, यूरोपीय संघ, अफ्रीकी देशों और इन सबके एकरुवीय, बहुरुवीय विश्व के अगुवा समझे जाने वाले अमेरिका एवं रूस जैसे पश्चिमी देशों को अपने बहुआयामी कूटनीतिक प्रयत्नों से साध रहा है, उसमें चीन बुरी तरह से घिर चुका है और उससे निकलने के लिये बेहद तड़फड़ा रहा है।
स्पष्ट है कि चीन-पाक के नापाक गठजोड़ से मुकाबला करने के लिये भारत भी अब नए सिरे से अपना कमर कस चुका है, जिसमें नए सामरिक रणनीतिक मित्र बन चुके अमेरिका और उसके चहेते राष्ट्रों यथा इजरायल, जापान आदि देशों का महत्व निरन्तर बढ़ता जा रहा है। हैरत की बात है कि भारत-अमेरिका की बढ़ती करीबी हमारे सबसे पुराने और वैश्विक मंचों के सर्वाधिक भरोसेमंद साथी समझे जाने वाले रूस (पहले सोवियत संघ) को कतई रास नहीं आ रहा है। शायद यही वजह है कि उसकी सहानुभूति चीन से और सहयोग पाकिस्तान से भी बढ़ा रहा है, जो कि भारत के लिये चिंता की बात है। इससे भारत का अंतरराष्ट्रीय संतुलन थोड़ा डगमगाया जरूर है, लेकिन सुकूनदायक बात यह है कि भारत-रूस रणनीतिक-सामरिक सम्बन्धों की गर्मजोशी अभी पूरी तरह से ठंडी नहीं पड़ी है, जो कि भारत की बढ़ती राजनैतिक-सामरिक हैसियत तथा भूमण्डलीकृत अर्थव्यवस्था की अंतरराष्ट्रीय जरूरतों का तकाजा भी है।
यही वजह है कि भारत-आसियान देश अपने क्षेत्रीय हितों की रक्षा के लिये पहले समुद्री सुरक्षा सहयोग और अब कट्टरपंथ तथा आतंकवाद से निबटने के लिये एक-दूसरे के करीब आये हैं, और आपसी सहयोग बढ़ाने का दृढ़ निश्चय किया है जिससे प्रभावित होने वाले देशों की नींद उड़ गई है। यह भारतीय प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी द्वारा आतंकवाद के खिलाफ चलाई जा रही वैश्विक मुहिम के नजरिये से भी एक बहुत बड़ी कूटनीतिक सफलता है, जिससे आतंकवाद हतोत्साहित होगा और उसे बढ़ावा देने वाले पाक-चीन पस्त होंगे।
यह ठीक है कि नवमहत्वाकांक्षी चीन के प्रभाव वाले सार्क-आसियान देश भले ही भारत की इन बातों को कम तवज्जो दें, लेकिन सहनशील भारत के साथ सहानुभति रखने वाले सार्क-आसियान देशों के लिये तो यह नवदुनियादारी का मूलमंत्र बन चुका है। वास्तव में, अब उन देशों पर भी भारत का रंग चढ़ा है, प्रभाव बढ़ा है, जो कतिपय कारणों से चीनी चक्रव्यूह में फंसकर तड़फड़ा रहे हैं। कहना न होगा कि दक्षिण चीन सागर से लेकर भारतीय उपमहाद्वीप तक में उभरे कतिपय विवादों ने भारत-आसियान को एक दूसरे के करीब लाया है। यह श्मोदी मैजिकश् जनित भारतीय कूटनीति का भी तकाजा है जिसने सम्बन्धित देशों में एक नया आत्मविश्वास पैदा किया और उनके दृढ़ विश्वास को जगाया है।
भारतीय प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने भी अब स्पष्ट कर दिया है कि भविष्य के लिये हमारा एक साझा नजरिया है जो समावेशन व एकीकरण को प्रतिबद्धता, भिन्न आकार के बावजूद सभी देशों की सार्वभौम समानता पर आधारित है और व्यापार व भागीदारी की मुक्त राहों का समर्थन करता है। यही वजह है कि भारत-आसियान देश अब आतंकवाद की परिभाषा तय करने के लिये यूएन में जारी चर्चा को भी आगे बढ़ाने पर सहमत हो चुके हैं। साथ ही, सूचनाओं का परस्पर आदान प्रदान, आतंकी फंडिंग रोकने, उनकी सीमापार आवाजाही पर नकेल कसने, कट्टरपंथ के प्रसार को काबू में करने आदि मुद्दों पर साझा तंत्र के तहत सहयोग का जो फैसला हुआ है, बेहद महत्वपूर्ण है। यदि पिछले अनुभवों से सीख कर इस पर अमल किया जाएगा तो निःसंदेह सकारात्मक परिणाम सामने आएंगे।
दरअसल भारतीय दिलचस्पी बढ़ते देख आसियान राष्ट्रों, यथा-इंडोनेशिया, मलेशिया, फिलीपींस, वियतनाम, सिंगापुर, कंबोडिया, म्यांमार, थाईलैंड, ब्रुनेई एवं लाओस की वैश्विक पूछ बढ़ी है और अपने-अपने भावी नफा-नुकसान को लेकर भी विश्व के अनेक क्षेत्रीय संगठन, यथा- यूरोपीय संघ, अफ्रीकन यूनियन, शंघाई सहयोग संगठन एवं एपेक आदि और अधिक सक्रिय हुए हैं, जिसका परोक्ष रणनीतिक व आर्थिक लाभ भी भारत को मिलेगा।
निःसंदेह, आसियान राष्ट्रों पर चीन के व्यापक प्रभाव के बावजूद भारत-आसियान संबंधों में जो प्रगाढ़ता आई है, उससे विकासशील राष्ट्रों के बीच द्विपक्षीय एवं क्षेत्रीय संबंध सशक्त होने पर एक रुवीय विश्व-व्यवस्था को भी चुनौती दी जा सकती है। यही नहीं, एशियाई राष्ट्रों में आपसी एवं क्षेत्रीय सहयोग तथा समन्वित सोच के बढ़ने से 21वीं सदी को ‘एशिया की सदी’ भी बनाया जा सकता है। यह भाव इस पूरे क्षेत्र में शांति और समृद्धि का न केवल विस्तार करेगा, बल्कि वैश्विक कूटनीति को भी और अधिक अनुकूल बनाएगा।