कमलेश पांडे,
वैश्विक व एशियाई दोनों नजरिये से पश्चिम एशिया विशेषकर खाड़ी देशों के साथ भारत के द्विपक्षीय रिश्ते अहम मायने रखते हैं। अंतरराष्ट्रीय शक्ति संतुलन के लिहाज से भी भारत के लिये इन समुद्री देशों का खास आर्थिक व सामरिक महत्व है। दरअसल, ये आपसी सम्बन्ध वक्त की कसौटी पर हमेशा खरे उतरे और एक दूसरे के काम आए हैं। इसलिये प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी भी इन पारम्परिक रिश्तों को और अधिक गतिशील बना रहे हैं। अपनी कूटनीतिक यात्राओं से वे न केवल इन सम्बन्धों को अधिक प्रगाढ़ बना रहे हैं, बल्कि उन्हें एक नई ऊंचाई भी प्रदान कर रहे हैं। निर्विवाद रूप से भारत को एक प्रमुख वैश्विक शक्ति बनाने के लिये उनकी यह सोची-समझी रणनीति है, जिसके कतिपय गहरे कूटनीतिक निहितार्थ हैं।
पहला, भारत चाहता है कि दुनिया की बदलती कूटनीतिक आबोहवा के बावजूद भी पश्चिम एशियाई देशों, विशेषकर खाड़ी देशों के साथ उसके सरल-सहज रिश्ते हमेशा महफूज बने रहें। ये आपसी सम्बन्ध तमाम दुनियावी प्रलोभनों, विशेषकर चीन-पाक की नापाक चालों से, अप्रभावित रहें। ये कतिपय भारतीय हितों के अनुकूल बने रहें, ताकि वैश्विक मंचों पर उसका पारस्परिक लाभ उठाकर सबका समान हित साधा जा सके।
दूसरा, विश्व के अन्य देशों के साथ भारत के सम्बन्धों में पश्चिम एशियाई देशों विशेषकर खाड़ी देशों की एक खास जरूरत है और प्राथमिकता भी, जिसके अपने विशेष मायने हैं। क्योंकि इन देशों के साथ भारत के शानदार बहुआयामी सम्बन्ध दशकों क्या, सदियों से स्थापित हैं और विश्वास के लायक भी।
तीसरा, समुद्री परिप्रेक्ष्य में भारत के पड़ोसी पुनर्परिभाषित किये जा रहें हैं जिसमें खाड़ी और पश्चिम एशिया का उतना ही महत्व है जितना कि सार्क और आसियान देशों का। यही नहीं, सुदूर पूर्व के देशों का भी रणनीतिक महत्व बढ़ा है। यही वजह है कि इन देशों के साथ भारत के बहुआयामी सम्बन्धों को निरन्तर मजबूत किया जा रहा है, ताकि चीन के साथ शक्ति संतुलन की जो होड़ मची हुई है, उसके मद्देनजर भारत का पलड़ा हमेशा संतुलित दिखे या फिर भारी।
चैथा, पश्चिम एशियाई देश गत सदी से ही पेट्रोलियम सभ्यता के परिचायक और पूरक बने हुए हैं, जिनका भारत के लिये खास महत्व है। यही नहीं, इन खाड़ी देशों में 90 लाख भारतीय कार्यरत हैं, जिसके चलते इन देशों के साथ भारत का आत्मीयता भरा रिश्ता स्वाभाविक है, जो उन्हें और करीब लाता है।
पांचवां, फलस्तीन के राष्ट्रपति महमूद अब्बास ने पश्चिम एशिया शांति वार्ता विशेषकर इजरायल-फलस्तीन विवाद के समुचित निपटारे के मद्देनजर जहाँ भारतीय मध्यस्थता की विश्वसनीय भूमिका को रेखांकित किया है, वहीं अमेरिकी मध्यस्थता की भूमिका की बात को सिरे से खारिज करते हुए उसे इसके लायक अक्षम करार दिया है। राष्ट्रपति के कूटनीतिक सलाहकार माजदी अल खालदी ने भी इजरायल-फिलिस्तीन वार्ता में भारत की अहम भूमिका की बात छेड़ी है, जो बेहद महत्वपूर्ण है।
अंतिम, संयुक्त राष्ट्र के श्दो राष्ट्र प्रस्तावश् के मुताबिक अगर दो देश आपसी विवादों को सुलझाने हेतु किसी भरोसेमंद तीसरे देश पर निर्भर होकर उससे मध्यस्थता करवाने के लिये राजी हों तो ऐसी किसी भी सकारात्मक पहल को अंतरराष्ट्रीय मान्यता प्राप्त है। इसलिये भले ही भारत अब तक इजरायल-फलस्तीन संघर्ष में पक्षकार बनने से बचता आया है, लेकिन अब उसे खुलकर सामने आना चाहिए और अपनी नेकनीयती से इस मसले को उसके मुकाम तक पहुंचाना चाहिए। क्योंकि फलस्तीन के कई नेता विभिन्न अवसरों पर शांति प्रक्रिया में भारत की संभावित भूमिका की चर्चा कर चुके हैं और बेहद आशान्वित भी हैं।
खास बात यह है कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की ऐतिहासिक फलस्तीन यात्रा के मौके पर वहां के राष्ट्रपति अब्बास ने अंतर्राष्ट्रीय मंच पर भारत को बेहद सम्मानित देश बताते हुए स्पष्ट कहा है कि फलस्तीन-इजरायल के बीच अंतिम समझौता वार्ता के लिये एक बहुपक्षीय मंच बनाने में भारत अपनी बेहतर भूमिका निभा सकता है, इसलिये इस सम्बंध में भी वे पीएम मोदी को तैयार करेंगे। यह भारत के लिये सुखद स्थिति है।
दरअसल, विभिन्न वैश्विक मंचों पर एक नवोदित अमेरिकी रणनीतिक मित्र के तौर पर उभर रहे भारत ने बीते वर्ष यरुशलम को इजरायल की राजधानी घोषित करने सम्बन्धी ताजा अमेरिकी पहल का समर्थन नहीं किया, जिससे फलस्तीन का भरोसा भारत पर बढ़ा है। भारत यदि इस मामले में सफल होता है तो पश्चिमी एशिया में उसके अंगद पांव जमने के स्पष्ट आसार नजर आ रहे हैं।
इस बात में कोई दो राय नहीं कि वैश्विक शक्ति संतुलन के लिहाज से भी पश्चिम एशियाई देशों का भारत के लिये उतना ही महत्व है जितना कि आसियान देशों का। क्योंकि सार्क देशों के प्रमुख राष्ट्र भारत के लिये पश्चिम एशियाई राष्ट्र दाहिने हाथ की तरह हैं तो आसियान राष्ट्र बांये हाथ के जैसा। लिहाजा अपने पड़ोसी महत्वाकांक्षी और विस्तारवादी देश चीन की टेढ़ी चालों से बचने और अपनी प्रतिरक्षात्मक स्थिति अपेक्षाकृत मजबूत करने के लिये भी इनके साथ सामूहिक मजबूत रणनीति बनाना भारत के लिये बेहद जरूरी हो चुका है।
सच कहा जाए तो पूरा पश्चिमी एशिया ही समस्याग्रस्त क्षेत्र है। द्वितीय विश्वयुद्ध के बाद से यह भूभाग ज्यादा अशांत हुआ है। अमेरिकी विदेश नीति के पास इन समस्याओं से जूझने के लिये कोई ठोस रणनीति भी नहीं है। जबकि, उससे प्रतिस्पर्द्धारत रहे देशों, यथा- रूस-चीन की विदेश नीति की फटेहाली भी इन देशों से छिपी हुई नहीं है। यही वजह है कि यहां के अधिकांश देश रहमदिल भारतीय कूटनीति से अत्यधिक प्रभावित हैं और वैश्विक शक्ति संतुलन के लिहाज से भारत को मजबूती प्रदान करके अमेरिका, रूस और चीन के आपसी होड़ से उत्पन्न नकारात्मक प्रभावों से मुक्ति चाह रहे हैं।