त्रिपुरा, क्या वामपंथी किले पर लहरायेंगे भगवे झंडे?

-कमलेश पांडे
नई दिल्ली। अगले माह 18 फरवरी को होने वाले त्रिपुरा विधान सभा चुनाव में वामपंथी किले पर भगवे झंडे लहराएंगे या नहीं, यह आगामी 3 मार्च को पता चलेगा। क्योंकि देश में पहली बार त्रिपुरा में यह स्थिति बनी है कि अमूमन एक दूसरे का प्रबल विरोधी समझी जाने वाली धूर वामपंथी पार्टी माकपा तथा दक्षिणपंथी पार्टी बीजेपी सीधे मुकाबले में एक दूसरे के खिलाफ ताल ठोक रही हैं। लिहाजा सत्ता का ऊँट किस करवट बैठेगा, यह कहना तो अभी जल्दबाजी होगी, लेकिन इतना तय है कि जीत चाहे जिस किसी की भी हो, उसके चुनावी सन्देश मिशन 2019 के लिहाज से कारगर और अहम साबित होंगे।
यूं तो राष्ट्रीय स्तर पर बीजेपी के मुकाबले माकपा पश्चिम बंगाल, केरल और त्रिपुरा को छोड़कर कहीं भी नहीं ठहरती है, क्योंकि एक तरफ माकपा का जनाधार जहाँ निरंतर छीजता चला जा रहा है, वहीं दूसरी ओर बीजेपी का जनाधार उपरोक्त तीनों राज्यों समेत पूरे देश में लगातार बढ़ता ही जा रहा है। यह बात दीगर है कि त्रिपुरा की सियासी फितरत कुछ और ही है जो माकपा के अनुकूल रही है। वह देश का पहला ऐसा राज्य है जहां माकपा का जनाधार बेहद मजबूत है, और तमाम तरह के राजनैतिक उतार-चढ़ाव देखने के बावजूद अभी तक कायम है। कई मामलों में यहां माकपा की स्थिति पश्चिम बंगाल और केरल से भी ज्यादा मजबूत है, क्योंकि यहाँ की सत्ता पर वह पिछले चालीस वर्षों यानी कि 1978 से ही काबिज है, सिर्फ बीच के पांच वर्षों (1988-93) को छोड़कर। यह बात दीगर है कि केरल और पश्चिम बंगाल की तरह त्रिपुरा में भी उसका आधार यदि दरकता है तो यह चैंकाने वाली बात जरूर होगी।
एक अहम बात जो कि माकपा के हित में चली जाती है, वह यह कि वरिष्ठ माकपा नेता और मुख्यमंत्री माणिक सरकार देश के सबसे गरीब मुख्यमंत्री समझे जाते हैं और वर्ष 1993 से ही इस आदिवासी बहुल गरीब और पिछड़े राज्य को बेहद सफल राजनैतिक नेतृत्व प्रदान करते आये हैं। वह लगातार पांचवीं बार मुख्यमंत्री बनकर विगत 25 वर्षों से सफलतापूर्वक सूबे का शासन चला रहे हैं जो कि अपने आप में एक अनोखा चुनावी व राजनैतिक कीर्तिमान है। लिहाजा माकपा पुनः उनके ही सरल व सहज नेतृत्व में देश की सबसे बड़ी तथा सर्वाधिक अमीर पार्टी बीजेपी से कड़ी चुनावी मुकाबला कर तो रही है, लेकिन इस बार की छठी राजनैतिक अग्निपरीक्षा में उनके पिछड़ने या कम अंक आने के आसार भी प्रबल हैं।
माकपा के लिये यह सन्तोष की बात है कि राष्ट्र की दूसरी सबसे बड़ी और राजनैतिक अमीरी के पायदान पर दूसरे स्थान पर खड़ी रहने वाली काँग्रेस त्रिपुरा विधान सभा चुनाव को त्रिकोणात्मक संघर्ष में तब्दील करती नजर आ रही है, जिससे उसको काफी सुकून मिला है, क्योंकि सत्ता विरोधी मतों के विभाजित होने का भी फायदा भी माकपा को ही मिलेगा। शायद यही वजह है कि इस चुनाव में बीजेपी से कड़ी टक्कर मिलने के बावजूद माकपा नेता व मुख्यमंत्री माणिक सरकार जहाँ अपनी चुनावी सफलता के प्रति पूर्णतया आश्वस्त नजर आ रहे हैं, वहीं अपने कतिपय खास राष्ट्रीय सियासी अनुभवों के चलते उनकी पार्टी अंदरखाने में थोड़ी ही हिचकिचाहट दिखाते हुए अपनी रणनीतिक धार बढ़ा रही है।
दरअसल, यह सब कुछ अनायास नहीं बल्कि बीजेपी की सोची समझी और वृहत चुनावी रणनीति का तकाजा है जिसने त्रिपुरा की सूबाई राजनीति में हलचल मचा रखा है। दरअसल 2013 में हुए विधान सभा चुनाव में त्रिपुरा की कुल 60 सीटों में से 49 सीटें माकपा की झोली में गई, जबकि सूबे की मुख्य विपक्षी पार्टी कांग्रेस के जिम्मे महज 10 सीटें ही आईं, और एक अन्य सीट किसी दूसरे के खाते में चली गई। कहना न होगा कि इस चुनाव में बीजेपी को जबरदस्त झटका लगा था। उसे यह कदापि नहीं भूलना चाहिए कि इस विधान सभा चुनाव में वह 50 सीटों पर अपने प्रत्याशी खड़े कर चुनाव लड़ी थी, जबकि 49 सीटों पर उसके प्रत्याशी की जमानत तक जब्त हो गई थी।
इसलिये यह कम आश्चर्यजनक नहीं कि केंद्र में सत्तारूढ़ होने के महज साढ़े तीन वर्षों के बाद ही बीजेपी ने सूबे में अपनी सियासी स्थिति बेहद मजबूत कर ली है। उसने हालिया निकाय चुनाव में भी बेहतर प्रदर्शन कर माकपा को सीधी चुनौती दी है। वह सूबे में क्षेत्रीय दल आईपीएफटी से गठबंधन की कोशिश भी कर रही है। जाहिर है कि भाजपा जिस जीत का दावा कर रही है, उसका बड़ा आधार कमोबेश पिछले चार पांच महीनों में ही तैयार हुआ है, भले ही वह वर्षों से इसके निमित्त जुटी हुई है। चाहे वह सातवें वेतन आयोग का मुद्दा हो या फिर आदिवासी गर्व का विषय, भाजपा ने इसे अपना चुनावी हथियार बनाकर वामपंथी गढ़ को भेदने की जो कारगर रणनीति तैयार की है, वह चमत्कारिक और एक हद तक सफल भी दिखाई दे रही है जिससे उसकी कुछ उम्मीदें अप्रत्याशित तौर पर बढ़ी भी हैं।
कहना न होगा कि वर्ष 2014 में केंद्र में सत्ता में आने के बाद भाजपा ने पूर्वोत्तर में तेजी से अपने पांव पसारे हैं। जिसका सकारात्मक असर त्रिपुरा पर भी पड़ा है। दरअसल, सिक्किम समेत उत्तर-पूर्व के आठ राज्यों में से असम, अरुणाचल और मणिपुर में उसकी सरकारें हैं। सिक्किम का सत्तारूढ़ एसडीएफ तथा नगालैंड का सत्तारूढ़ एनपीएफ उसके साथ राजग गठबंधन में शामिल है। चूंकि तीन राज्य त्रिपुरा, मेघालय और मिजोरम उसकी पहुंच से दूर हैं, लेकिन खुशकिस्मती है कि त्रिपुरा और मेघालय जहाँ चुनाव हो रहे हैं, वह सत्ता में आने के लिये बीजेपी एड़ी-चोटी एक किये हुए है, क्योंकि भाजपा के मंसूबे अत्यधिक ऊंचे हैं। वह लोकसभा चुनाव 2019 से पहले सिक्किम समेत पूर्वोत्तर में सभी आठों राज्यों में सत्ता में आने की अथक कोशिश कर रही है, ताकि उसकी मजबूत हवा पूरे देश में बने और विपक्ष नेस्तनाबूत हो जाये। इसके लिये भाजपा अपनी ताकत बढ़ाने के साथ साथ अपने धूर विरोधियों को सीमित करने की कारगर रणनीति पर चल रही है, जिसके निशाने पर प्रमुख विरोधी कांग्रेस सबसे उपर है, फिर माकपा जैसे कतिपय अन्य विरोधी दल।

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