इस देश में बहुत बड़ा भ्रम है कि भाजपा देश की राजनीति में सांप्रदायिकता फैलाती है। यह भ्रम पैदा किया कम्युनिस्ट पत्रकारों, बुद्धिजीवियों, विचारकों और राजनीतिज्ञों ने। हकीकत ये है कि इस देश को सांप्रदायिकता की आग में झोंकने का काम हमेशा कम्युनिस्टों ने किया है।
मैं अनेकों उदाहरण से बता सकता हूं कि कैसे कम्युनिस्ट विचारकों के कमीनेपन की वजह के यह देश सांप्रदायिक लपटों से घिरता चला गया और बदले में बीजेपी लगातार मजबूत से मजबूत होती चली गयी। लेकिन यहां एक उदाहरण देता हूं। गोधरा कांड की निंदा अगर संसद में होती तो गुजरात २००२ से कभी न गुजरता। संसद ने निंदा क्यों नहीं की? बीजेपी सरकार में थी। वह कैसे अपनी ही सरकार के खिलाफ संसद में बोलती? बोलना तो कम्युनिस्टों को था। लेकिन वो नहीं बोले। पैंतीस चालीस सांसद होते थे उस वक्त। लेकिन किसी ने सांस नहीं ली। क्यों नहीं बोले? वो इसलिए नहीं बोले क्योंकि उस हत्याकांड को मुसलमानों ने अंजाम दिया था।
मुझे याद है, उस दिन मैं दिनभर इंतजार करता रहा कि संसद में कोई तो हिन्दुओं के इस नरसंहार के खिलाफ बोलेगा। लेकिन ऐसा जघन्य सांप्रदायिक दिमाग कि सारे कम्युनिस्टों को सांप सूंघ गया। उसी की प्रतिक्रिया में गुजरात २००२ हुआ और देश को बोनस में मोदी मिल गये। अगर कम्युनिस्टों ने संसद में खड़े होकर उस दिन गोधरा की निंदा किया होता और बीजेपी को घेर लिया होता तो शायद २००२ का दंगा कभी नहीं होता। लेकिन गोधरा पर चुप रहनेवाले ये कम्युनिस्ट बोले तो गोधरा को ही बीजेपी की साजिश बताने के लिए बोले।
इसलिए इनका विनाश तो होना ही है। इतनी कुटिल नीति इस देश के मानस को कभी स्वीकार्य नहीं हो सकता। वो अपनी आंखों से देखते और कानों से सुनते हैं कि कौन क्या कर रहा है और कौन क्या बोल रहा है।
बीजेपी सांप्रदायिक पार्टी नहीं है। सांप्रदायिक पार्टी रही हैं सीपीआई और सीपीएम। देश की राजनीति में सांप्रदायिकता का जहर घोलने का काम हमेशा कम्युनिस्टों ने किया है। बीजेपी को तो इस सांप्रदायिक राजनीति का फायदा मिलता है।
-हरेश कुमार