हे शल्य तुम क्यों मरते जा रहे?

महाभारत काल के ‘राजा शल्य’

अमित श्रीवास्तव

यदि सुविधाजनक वस्तुएं मुफ्त में मिलने लगे, मुफ्त बिजली सरकार बनाने का टूल्स बन जाए एवं सस्ती लोकप्रियता के लिए करों में कटौती की जाएं तो कोरोना जैसी वैश्विक महामारी की विपदा के बाद राष्ट्र का हाल श्रीलंका जैसा ही होगा मतलब बर्बाद कंगाल हो जाना। आर्थिक संकट से जूझ रहे श्रीलंका से यह सीखने की आवश्यकता है कि किसान-गरीब जैसे अलंकृत शब्दों की दुहाई से निर्मित भाषणों के दबाव में सरकार को फैसले नहीं लेने चाहिए। राष्ट्र के संचालन हेतु निंदा अथवा प्रशंसा के विज्ञापनों का कोई स्थान नहीं होता।

आईएमएफ समेत विश्व के आर्थिक स्थिति का आंकलन करने वाली बड़ी वैश्विक संस्थाएं जिन्हें भारत की आंतरिक राजनीति से कोई खास मतलब नहीं है, भारत की आर्थिक स्थिति विश्व में सबसे अच्छी है। लगभग डेढ़ वर्षों तक बंद पड़ी आर्थिक गतिविधियों के बीच भारत सरकार की बड़ी समस्याएं लोगों की भूख का उपाय एवं यथाशीघ्र टीका रूपी रक्षा कवच था। जिसे भारत सरकार ने उम्दा रूप में संभाला है। यह एक सच्चाई है। किंतु ऐसी शक्तियां जिनकी राजनीतिक सुचिता का तंबू दो शब्दों बेरोजगारी व महंगाई जैसे बम्बू पर टिका हो उनकी राय फ्रांसीसी क्रांति से लेकर रूसी क्रांति होते हुए, नक्सलवारी आंदोलन के रास्ते यूपीए सरकार तक यही है कि जब तक हमारी सत्ता नहीं तब तक सरकार कितना भी बेहतर कर ले भारत बर्बाद ही हो रहा है। जिन्होंने अपना रजिस्ट्रेशन बुद्धिजीवी वर्ग में करवा रखा है।

ऐसे बुद्धिजीवियों को देख कर महाभारत काल के ‘राजा शल्य’ की याद आती है। राजा शल्य चाहते तो थे पांडवों का राज किन्तु सारथी बनना पड़ा कौरवों के सेनानी कर्ण का। ऐसे में उन्होंने एक युक्ति ढूंढी युद्ध के मैदान में कर्ण को हतोत्साहित करने की। युद्ध के दौरान जैसे ही कर्ण अपना पराक्रम कर विरोधी के नायक को धाराशायी करते और उत्साहित होते तो ठीक उसी समय शल्य कहते कि ये शस्त्र तो बेकार गया। अर्जुन के लिए तो ये नायक कुछ महत्व ही नहीं रखता, पांडवों के साथ तो स्वयं श्री कृष्ण हैं, युद्ध वही जीतेंगे……वगैरह वगैरह। और यदि पांडव किसी घुड़सवार को भी गिरा देते तो शल्य ऐसे प्रस्तुत करते कि समझो पांडवो ने युद्ध जीत ही लिया। ऐसा करने से कर्ण का मनोबल टूट जाता। आज के बुद्धिजीवियों के एक वर्ग की स्थिति राजा शल्य जैसी है। 2014 के बाद उन्होंने खुद को कर्ण रूपी जनता का सारथी चुन लिया और दिन रात एक मिशन में लगे रहते हैं। इनका एकमात्र लक्ष्य है भारत का टूटा मनोबल एवं एक हतोत्साहित राष्ट्र।

किन्तु इस युग का कर्ण है कि इनकी सुनने को तैयार नहीं। लोकतंत्र का कर्ण इतना परिपक्व हो चुका है कि उसे ऐसे किसी सारथी की आवश्यकता ही नहीं रही जो उसे निराशा के आकंठ में डुबो दे। कर्ण का भंग होते मोह का परिणाम यह है कि ऐसे सारथी अब समाज में अप्रासंगिक हो गए। कर्ण को यह ज्ञात हो चुका है कि हतोत्साहित राष्ट्र कभी प्रगति नहीं कर सकता। अतः वो चीजों को स्वयं देखने समझने लगा है। अपने हित में निर्णय लेने लगा है। शल्य भली तरह से यह जानते हैं कि हतोत्साहित व्यक्ति को सदैव सलाहकारों की आवश्यकता रहती है। ऐसे में ऐसे सलाहकार जो अब तक हतोत्साहित करते आ रहे हैं, की चांदी हो जाती है। बात चांदी की हो तो शल्य अपने मिशन में लोहे की तरह टिके रहते हैं। भले ही उन्हें लोगों की लानतें झेलनी पड़े। दुत्कार मिलता रहे।

बार बार कर्ण के दुत्कारे जाने, इनके अप्रासांगिक होने के बाद भी ऐसे शल्य का सम्मान होना चाहिए ये वो प्रजाति हैं जिनमें अपार क्षमता है। प्रतिभशाली होते हैं। भला सच्चाई को नकार देना किसी प्रतिभा से कम है क्या? मुद्दों पर आंखें मूंद लेना, प्रत्येक घटना का विकृत विश्लेषण करना किसी क्षमता से कम भी तो नहीं। किंतु किया भी जाये तो क्या? सत्ता फांसीवादी के हाथों है।

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