अभिव्यक्ति की आजादी का सही अर्थ क्या है?

अभिव्यक्ति की आजादी का सही अर्थ क्या है?

विश्व के सबसे बड़े लोकतांत्रिक देश का नाम है “भारत“ किसी भी देश की व्यवस्था की जड़े कितनी गहरी है। इस बात का पता तब चलता है कि वहां के नागरिको को क्या अपनी बात कहने का अधिकार है या नहीं? भारत देश की खूबसूरती यही है कि यहाँ हम सबको अपने विचार वयक्त करने की स्वतन्त्रता है। हम चाहे किसी भी धर्म, जाति या समुदाय से क्यों ना सम्बन्ध रखते हो। हमें अपनी बात, विचार या फिर नाराजगी जताने का भी पूरा अधिकार दिया गया है। अभिव्यक्ति की आजादी का अधिकार व्यापक है। भारतीय सविधान के अनुछेद 19 (1) में अभिव्यक्ति की आजादी है। १९६३ में १६वे संशोधन के जरिए उसे विस्तारित किया गया।

अब हमें अभिव्यक्ति की आजादी मिल तो गई पर यह हम कब जान पाए कि इस आजादी का असल में अर्थ क्या था? हर अधिकार किसी ना किसी कर्तव्य को अपने में समेटे हुआ होता है। बस हमें इसे पहचानने के लिए अपने विवेक का सहारा लेना पड़ता है। कई बार हम अभिव्यक्ति की आजादी का प्रयोग जब अपनी नाराजगी किसी राजनैतिक दल, या किसी व्यक्ति विशेष के प्रति अपने रोष को प्रकट करने के लिए करते है तो जाने अनजाने में भाषा को मर्यादित करना भूल जाते है। यह अक्सर देखा गया है कि अपने रोष मे हमें यह भी ध्यान नहीं रहता कि हम किसी व्यक्ति का ही नहीं बल्कि कई बार भारत के विशेष पदाधिकारीयों का अपमान कर देते है। तब हमें यह क्यों नहीं याद रहता कि भारत का हर पद भारतीय सविधान की नीवं है।

क्या मात्र अभिव्यक्ति की आजादी हमारे विचारों के लिए ही है? क्या इसमें दूसरों के मान-सम्मान का ध्यान रखना हमारा कर्तव्य नहीं है? यहाँ बात मात्र राजनैतिक दल का एक-दूसरे पर आरोप-प्रत्यारोप लगाने के बारे में ही नहीं है, बल्कि डिजिटल प्लेटफार्म जहां बिना किसी विशेष रोक-टोक के हम अपनी बात रख सकते है। इस आजादी का प्रयोग भी हम कई बार एक-दूसरे को अपमानित करने के लिए करने लगते है। अफवाहों की पुष्टि किए बिना उस पर टिप्पणी करना या विश्वास ही कर लेना घातक बनता जा रहा है। अब तो डिजिटल प्लेटफार्म का प्रयोग उपयोगिता के लिए कम और नकारात्मकता फैलाने के लिए ज्यादा हो रहा है। हम यह भूल गए कि अभिव्यक्ति की आजादी का अधिकार सबका है। हम किसी की सोच को बाधने का काम क्यों करने लग जाते है? क्यों चाहते है कि जो हमारे विचार हो उससे बिना किसी तर्क- वितर्क के सामने वाले को मान लेना चाहिए। या अगर हम किसी के प्रति रोष वयक्त करते हुए उसे अपमानित भी करें तो अपने सविधान के अनुछेद का हवाला देकर हमारे रोष को समाज द्वारा स्वीकार कर लेना चाहिए ?

लेकिन हम यह भूल जाते है कि अधिकार कभी भी असीमित नहीं होते। वह अपने साथ मान एवं अपमान की एक बारीक डोर लाते है। जिसे हमें स्वयं समझना पड़ता है। हमें अपने मन और आँखों से सर्वश्रष्ठ होने के चश्मे को उतारना पड़ेगा। तभी हम समझ पाएंगे कि जो हमारे लिए अपमानित होने वाले हालात है वह किसी और के लिए सम्मानित कैसे हो सकते है? जिस किसी के मन को ठेस पहुंचाना, उसके व्यक्ति विशेष होने पर कटाक्ष या किसी के सफल जीवन से कुंठित होकर नकारात्मकता फैलाना भी अधिकारों का हनन करना ही है। अपने देश के सविधान का मात्र प्रयोग ना करें बल्कि इसका अपने जीवन में सम्मान के साथ निर्वाह करें। फिर देखिए हमें अपनी ही आजादी को महसूस करने के लिए किसी निर्धारित नियम की आवश्यकता ही नहीं रहेगी। बल्कि हर दिन आजादी और हर क्षण एक मजबूत देश निर्माण में स्वयं को किसी ना किसी रूप में सहायक पाकर गर्व की अनुभूति मिलेगी।

अदिति सिंह भदौरिया (लेखिका)

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