बिहार विगत तीस वर्षों से लालू व नीतीशराज से पीड़ित रहा है। यधपि पीड़ित शब्द निराशाजनक है किंतु बिहार की स्थिति को देख कर जिस पीड़ा का अनुभव आज बिहार की आम जनता कर रही है इसके पश्चात पीड़ित शब्द ही उपयुक्त नजर आता है। भाजपा बिहार में एक बड़ी पार्टी है और कुछ महीनों को छोड़ दें तो भाजपा नीतीश कुमार की सहयोगी रही है किंतु बिहार सरकार के बड़े फैसलों में भाजपा की भूमिका कम ही नजर आती है। निकट भविष्य में भी भाजपा सत्ता में फैसले लेने की स्थिति में नजर नहीं आ रही जब तक कि वे अपने कोर एजेंडे से समझौता करने का परित्याग न कर दे। बिहार के आम जनता का एक बड़ा तबका का सदैव एक मत है कि भाजपा सत्ता के केंद्र में रहे और विभिन्न प्रदेशों की तरह बिहार में भी सरकार चलाए। पूरे राष्ट्र में हिंदुत्व व राष्ट्रवाद की पिच पर खेलने वाली भाजपा बिहार में राष्ट्रवाद और हिंदुत्व को कभी मुद्दा नहीं बना पाई। बड़े वर्ग का मानना है कि इसके लिए बिहार भाजपा व इनके नेता ही इसके जिम्मेवार है।
आम बिहारियों की तरह बिहार भाजपा के नेताओं की दिलचस्पी दिल्ली कमाने की रहती है अर्थात वे केंद्र सरकार में मंत्री अथवा राष्ट्रीय स्तर के नेता बनने में ज्यादा दिलचस्पी रखते हैं। इसका दुष्परिणाम यह होता है कि वे प्रदेश के नेता के रूप में स्थापित नहीं हो पाते। पूर्व के तीस वर्षों का उदाहरण लें तो रविशंकर प्रसाद से लेकर राजीव प्रताप रूढ़ी हों या वर्तमान में अश्विन चैबे या नित्यानन्द राय। केंद्र में मंत्री बनने अथवा राष्ट्रीय कार्यकारिणी में आने के बाद इनकी दिलचस्पी या तो राष्ट्रीय स्तर पर पहचान बनाने की होती है अथवा ये इतने में ही संतुष्ट हो बिहार की राजनीति से दूर हो जाते हैं। अपवाद में सुशील मोदी हैं किंतु वे पूरी पार्टी को नीतीश कुमार के चरणों में अर्पित करने के लिए याद किए जाएंगे। शहनवाज हुसैन की बिहार की राजनीति से कितना प्रेम है इसे ऐसे समझा जा सकता है कि वो इस वर्ष ईद दिल्ली में मनाते हैं और ईद की दावत दिल्ली में रखते हैं।
ऐसा नहीं है कि भाजप को राष्ट्रवाद व हिंदुत्व के मुद्दे पर बिहार को एकजुट करने का मौका नहीं मिला किंतु बार बार मौका मिलने के बाद भी प्रदेश भाजपा निष्क्रिय रही। ब्।। प्रकरण को उदाहरण के रूप में देखा जा सकता है। यह मुद्दा राष्ट्रवाद व हिंदुत्व दोनो ही विषयों को जोड़ता है किंतु इसका लाभ बिहार भाजपा की निष्क्रियता के कारण राजद को ज्यारा मिला क्योंकि नीतीश कुमार ने विधानसभा में इसके विपरीत प्रस्ताव पास कराने में सफल रहे और भाजपा मौन रही। नीतीश कुमार के इस कदम से 2020 विधानसभा चुनाव में राजद को फायदा मिला और मुस्लिम मतदाताओं का बड़ा हिस्सा भाजपा के विरुद्ध राजद के पक्ष में हो गया। शाहीनबाग प्रकरण के बाद जहाँ मुस्लिम मतदाताओं का ध्रुवीकरण राजद के पक्ष में था वहीं सीमांचल के क्षेत्रों में ओवैसी की पार्टी को भी इसका फायदा मिला किंतु ब्।। के विरुद्ध नीतीश कुमार के प्रस्ताव का कड़ा विरोध न कर पाने के कारण भाजपा हिंदुत्व व राष्ट्रवाद के मुद्दे से बिहार की आम जनता के एक बड़े वर्ग को साथ जोड़ने में असफल रही।
भाजपा अपनी पिच को छोड़ नीतीश कुमार के बुने जाल में यह सोच कर फंस गई कि हिन्दू हमारे साथ और मुस्लिम जद यू के साथ हो जाएंगे यही भाजपा की सबसे बड़ी भूल थी। बेशक भाजपा मुस्लिम मतदाताओं पर डोरे डालने से नहीं चूक रही है किंतु वर्तमान भारत की सच्चाई इससे परे है। शाहीनबाग प्रकरण के बाद बिहार में मुस्लिम मतदाताओं का भाजपा से जुड़ने की कल्पना भ दिवा स्वप्न से इतर कुछ भी नहीं है। 2020 का बिहार विधानसभा चुनाव इसका साक्षी है। जिस नीतीश कुमार ने मुस्लिम तुष्टिकरण की सीमाएं बार बार लांघी मुस्लिम मतदाताओं ने उसका भी साथ नहीं दिया क्योंकि उन्हें भाजपा को सत्ता से बाहर रखना था। 2014 के लोकसभा चुनाव में भी शाहनवाज हुसैन की हार एक और उदाहरण के रूप में देखा जा सकता है।
नागरिकता राज्य सूची का विषय न होते हुए संघीय सूची का विषय होने के बाद भी बिहार राज्य सरकार द्वारा इसे लागू न करने का प्रस्ताव असंवैधानिक था किंतु बिहार भाजपा गठबंधन के बोझ तले दबी रही और एक प्रकार से अपने ही कोर एजेंडे के विरुद्ध चली गई। इसका परिणाम यह हुआ कि भाजपा दूसरे नम्बर की पार्टी बन कर रह गई है और नीतीश कुमार ने अंदरखाने राजद को मजबूत बना दिया है। इसे कहने में कोई अतिश्योक्ति नहीं है कि बिहार भाजपा नेता विहीन है। यूं तो बिहार भाजपा में नेताओं की कमी नहीं है किंतु यह भी उतना ही कड़वा सत्य है कि वर्तमान भाजपा में पूरे प्रदेश का नेतृत्व करने की क्षमता रखने वाले कोई नेता बिहार भाजपा में हैं ही नहीं। दिल्ली प्रेम ने बिहार भाजपा को प्रादेशिक स्तर पर नेता विहीन कर दिया है।
बिहार में भाजपा के दो उप मुख्यमंत्री हैं किंतु दोनो की राजनीतिक हैसियत अपने क्षेत्र के साथ वाली सीट पर भी जीत दिला देने की भी नहीं है। जातीय समीकरण की बात की जाए तो श्री सीपी ठाकुर के अलावा ऐसे कोई नेता नहीं हुए जिनकी उनके स्वजाति में पकड़ हो। वे भूमिहार जाति से हैं किंतु अब बढ़ते उम्र के साथ उनकी पकड़ भी कमजोर हुई है। वर्तमान में बिहार भाजपा के पास ऐसा कोई नेता नहीं है जिसका प्रभाव उनकी जाति के मतदाताओं पर हो। इसके पीछे एक बड़ी वजह आंतरिक गुटवाजी भी है। वर्तमान प्रदेश अध्यक्ष कप्तान की भूमिका में नजर नहीं आ रहे और प्रदेश के संगठनकर्ता के रूप में इनकी पहचान नहीं बन पाई है। इसके तीन कारण है एक यह कि अपने स्वजाति अथवा बनिया वर्ग में कमजोर पकड़ दूसरा इनका संगठन के अंदर भी पकड़ का न होना और तीसरा कारण है पार्टी में कई बड़े कद वाले नेताओं की भरमार। इन तीनो ही कारणों से वर्तमान प्रदेश अध्यक्ष उतने प्रभावी नहीं दिखते जितने की आवश्यकता है।
भाजपा केंद्रीय नेतृत्व द्वारा ही प्रदेश नेतृत्व गढ़ने की आवश्यकता है। किंतु केंद्र द्वारा चयनित दोनो ही उप मुख्यमंत्रियों का सांगठनिक रूप आंकलन कर यह स्पष्ट अवधारणा बनती है कि केंद्रीय नेतृत्व से चूक हुई है। भाजपा की ताकत है राष्ट्रवाद के मुद्दे पर प्रखरता एवं मुखरता के साथ अपनी बात रखना। जिसके दम पर भाजपा का विस्तार गैर हिंदी क्षेत्रों में भी हो रहा है। किंतु दुर्भाग्य है कि बिहार भाजपा इन मुद्दों पर न तो कभी राय रखती है और न ही कोई प्रकल्प ही चलाती है। ऐसा नहीं है कि बिहार से आने वाले केंद्रीय मंत्री श्री गिरिराज सिंह इन विषयों पर अपनी राय नहीं रखते किंतु प्रदेश भाजपा का साथ इनको मिला हो ऐसा उदाहरण कम ही देखने को मिलता है।
बिहार में एक कहावत है ज्यादा जोगी मठ उजाड़। यही हाल बिहार भाजपा के साथ साथ बिहार की भी है। बिहार में जितने दल सक्रिय राजनीति में क्रियाशील रहे हैं उनसे कहीं ज्यादा राष्ट्रीय अध्यक्ष रहे हैं। लालू यादव, तेजस्वी यादव, नीतीश कुमार, आरसीपी सिंह, ललन सिंह, रामविलास पासवान, पशुपति पारस, चिराग पासवान, पप्पू यादव, शरद यादव, जीतनराम मांझी, उपेंद्र कुशवाहा, प्रभुनाथ सिंह सभी अपनी क्षेत्रीय पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष या राष्ट्रीय नेता रहे हैं। भाजपा अध्यक्ष जे पी नड्डा का कार्यक्षेत्र बिहार रहा है। किंतु यह भी सत्य है कि राष्ट्रीय स्तर पर बिहार की छवि सुधारने में इन सब्जी नेताओं ने अपनी उतनी भूमिका नहीं निभाई जितने की उम्मीद थी।
वाजपेयी व यूपीए दोनो ही सरकारों में बिहार से ग्यारह सांसद मंत्री रहे हैं। वर्तमान मोदी केबिनेट में भी बिहार के नेताओं का बोलबाला है किन्तु इसके बाद भी बिहार और बिहार भाजपा की स्जिति दुर्भाग्यपूर्ण है। भाजपा केंद्रीय नेतृत्व को चाहिए कि केंद्रीय मंत्रिमंडल से कुछ नेताओं को बिहार वापस भजें व सांगठनिक रूप से बिहार को सेक्टर में बांट कर उसकी जिम्मेवारी इनको सौपे। यह भी संभव है कि उन्हें उनकी जाति अथवा क्षेत्र में भाजपा के विस्तार की जिम्मेदारी दें। यह भी आवश्यक है कि वैचारिक रूप से पुष्ट संघ बैकग्राउंड के किसी नए चेहरे की नियुक्ति प्रदेश अध्यक्ष के रूप में की जाए। संगठन मंत्री बिहार से बाहर के हों और विचारधारा को लेकर समहौता करने वाले न हों। जिनके नियमित प्रवास सुनिश्चित किए जाएं।
भाजपा को यदि बिहार में अपनी पकड़ मजबूत करनी है तो उन्हें अपने ही पिच पर खेलने की आवश्यकता है न कि इनके प्रतिद्वंद्वी राजद जदयू की पिच पर। राजद और जद यू दोनों ही दल क्षेतेवाद, तुष्टिकरण व जातिवाद की पिच पर खेलने वाले दल हैं जबकि भाजपा की ताकत राष्ट्रवाद व हिंदुत्व है। जिस पर बिहार भाजपा खेलने से डरती है अथवा परहेज करती है। इसका एक कारण जद यू के साथ गठबंधन भी हो सकता है। किंतु जब नीतीश कुमार गठबंधन में रह कर भी अपने हितकारी एजेंडे यथा तुष्टिकरण से परहेज नहीं करते तो भाजपा क्यों समझौता करती है ये समझ से परे है।
श्री नरेन्द्र मोदी, अमित शाह व जेपी नड्डा जी को चाहिए कि बिहार की कमान ऐसे नेताओं को सौंपे जो एक्टिविस्ट हों। नित्य कार्यक्रम करने वाले हों और प्रकल्प के माध्यम से प्रदेश स्तर पर संगठन को सक्रिय करे। यदि ऐसा होता है तो बिहार में भाजपा जल्द ही बड़ी पार्टी बन कर उभर सकती है जिसे नीतीश कुमार की आवश्यकता ही न रहे।