सीरियल ‘बा बहू और बेबी’ की लोकप्रिय अदाकारा सरिता जोशी ने जीवन के पलों को साझा किया

6 साल तक बाल कलाकार के तौर पर काम करने के बाद, 16 साल की उम्र में बतौर लीड अभीनेत्री काम किया। थिएटर जीवन में अपने उच्चारण और डिक्शन पर बहुत ध्यान दिया, क्योंकि ये दोनों चीजें स्टेज पर बेहद महत्वपूर्ण भूमिका निभाती हैं।
नई दिल्ली। हिट टीवी सीरियल ‘बा बहू और बेबी’ में गोदावरी ठक्कर के रोल के लिए काफी लोकप्रिय रही अभिनेत्री सरिता जोशी ने सोमवार को ‘लिविंग लेजेंड’ सत्र में अपने जीवन के कुछ पलों को खुलकर साझा किया। सरिता जोशी गुजराती और मराठी थिएटर की रानी मानी जाती हैं और गुजराती थिएटर में अपने बेहतरीन योगदान के लिए संगीत नाटक अकादमी पुरस्कार से सम्मानित भी हो चुकी हैं।
बतौर थिएटर कलाकार अपने शुरुआती दिनों को याद करते हुए जोशी कहती हैं, मेरे परिवार की आर्थिक स्थिति अच्छी नहीं थी और जब मैं बहुत छोटी थी तभी मेरे पिता गुजर गए। मैं सिर्फ सात साल की थी तभी से थिएटर में काम करने लगी ताकि अपनी मां का सहयोग कर सकूं। मुझे अपने पहले नाटक में गाया हुआ गाना आज भी याद है, क्योंकि मुझे गाना गाना बेहद पसंद था। 6 साल तक बाल कलाकार के तौर पर काम करने के बाद, 16 साल की उम्र में मिस जोशी ने लीड अभिनेत्री के तौर पर काम किया। उन्होने इंडियन नेशनल थिएटर के साथ एक्टिंग करना शुरू किया और 1980 में टीवी सीरीज ‘तितलियां से टीलीविजन पर उन्होने डेब्यू किया। इसे नादिरा बब्बर ने डायरेक्ट किया था। इसके बाद 90के दशक में उन्होने तमाम सीरीज में काम किया जिनमें ‘हसरतें’ भी शामिल है। मिस जोशी कहती हैं, “एक कलाकार के तौर पर मैं हमेशा अपनी नीतियों पर चली हूं। मैने कभी भी अपना कमिटमेंट पूरा किए बगैर अपने डायरेक्टर अथवा प्रॉडक्शन को नहीं छोडा।
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उन्होने कहा, मेरा मानना है कि हर कलाकार के लिए परम्परागत थिएटर में इस्तेमाल होने वाली ‘स्तुति’ एक बेहतरीन स्पीच ट्रेनिंग है। मैंने थिएटर में अपने उच्चारण और डिक्शन पर बहुत ध्यान दिया, क्योंकि ये दोनों चीजें स्टेज पर बेहद महत्वपूर्ण भूमिका निभाती हैं।
उन्होंने कलाकार और उसकी कला के मध्य सम्बंधों पर प्रकाश डालते हुए कहा कि, हर कलाकार को खुद से प्रेम करना सीखना चाहिए और अपनी कला की देखभाल करनी चाहिए। कलाकारों को बहुत सारे त्याग भी करने पडते हैं। उदाहरण के तौर पर, मैं अपनी आवाज ठीक रखने के लिए किसी ठंडी चीज का इस्तेमाल नहीं करती। आजकल थिएटर आसान हो गया है। अब माइक्रोफोन, प्रॉम्प्टर जैसी चीजेे आ गई हैं, लेकिन आज भी इसमेे एक्सप्रेशन यानि भाव, फुटवर्क यानि पदचाप और हाथों की गतिविधियोँ पर काफी ध्यान देना होता है। थिएटर की विशिष्टता पर प्रकाश डालते हुए जोशी ने कहा कि मैं परम्परागत थिएटर से हूं जो उस दौर में मनोरंजन का प्रमुख साधन हुआ करते थे। लाइव आर्ट हमेशा फिल्म और टेलीविजन से आगे रहा है और थिएटर का प्रभाव आज के दौर में भी कम नहीं हुआ है।

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