प्रत्याशियों के चयन और चुनाव खर्चे में पारदर्शिता वक्त की मांग है..

जब तक राजनीति में भाईभतीजावाद, परिवारवाद, सामंतवाद और आपराधिक प्रवृत्ति के दोहरे चरित्र वाले लोगों का प्रवेश रोका नहीं जाएगा,तब तक सिर्फ गाल बजाने से हासिल कुछ नहीं होने वाला।
ऐसे लोग राजनीति में समाजसेवा के लिए तो कतई नहीं आते। ये लोग अपने ऊपर चल रहे आपराधिक केसों को कमजोर करने,मुखियागीरी विधायक, विधानपार्षद, सांसद की आड़ में हर तरह के कुकर्मों को छुपाने और चेहरा पर फेसवॉश लगाने का काम करते हैं।
उदाहरण के लिए हम शिवहर क्षेत्र की ही बात करें, तो एकाध अपवाद को छोड़कर आज तक एक भी प्रत्याशी का बैकग्राउंड सही नहीं मिलेगा।
अब सवाल यह है कि जो लोग पार्षद का टिकट 50लाख से 1करोड़ रुपये देकर खरीदते हैं, फिर चुनाव खर्च अलग से और पार्टी फंड में भी चढ़ावा देते हैं, उनसे आप क्षेत्र के विकास की उम्मीद कैसे रख सकते हैं।ये तो पहले दिन से ही अपने पैसों की सूद समेत वापसी और निकट संबंधियों को स्थानीय ठेकेदारी से लेकर अन्य विभागों में सेटिंग करने में लगे होते हैं।
विधायक और सांसद के टिकट का रेट तो इससे कई गुना ज्यादा है। नेतागीरी को लोगों ने धंधा बना लिया है। ईमानदार लोग इस धंधे को दूर से ही सलाम करते हैं। यहाँ नेताओं की कथनी और करनी में जमीन-आसमान का अंतर होता है। चुनाव के समय सब्जबाग दिखाने वाले नेता फिर पांच साल तक दर्शन भी नहीं देते हैं। वो दिन गए, जब नेताओं में लज्जा बची होती थी, 1990के दशक आते-आते यह सब धुल गया और ऐसे लोग खुलकर अपनी आपराधिक,बाहुबली, दबंग छवि के साथ बाहर आ गए। पहले जो लोग नेताओं के लिए वोट लूटने (बूथ कैप्चरिंग। चूंकि, पहले बैलेट पेपर से मतदान होता था) का काम करते थे, बदले में उन्हें ठेकेदारी और पुलिस-प्रशासन से छुटकारा मिलता था,वो खुद ही अब उम्मीदवार हो गए। यह आपराधिक छवि के लोगों का राजनीति में सीधा प्रवेश था। इसने नेताओं के बारे में बची-खुची इज्जत को भी तार-तार कर दिया। अब तो एके-47का जमाना आ गया, जो जितना बड़ा अपराधी, उसके जीत की संभावना उतनी ज्यादा। किसी एक का नाम लेने की जरूरत नहीं, सब एक जैसे ही हैं। (अपवादों की बात नहीं कर रहा)
यह हिन्दुस्तान का दुर्भाग्य रहा है कि इस देश में चतुर्थ श्रेणी के कर्मचारियों के लिए योग्यता का निर्धारण है,लेकिन नेताओं के लिए योग्यता का कोई निर्धारण नहीं। कुछ राज्यों में ग्राम पंचायत के चुनाव के लिए दो बच्चों से अधिक वालों को खड़ा नहीं होने दिया जाता, लेकिन संसद और विधानसभा के लिए यह जरूरी नहीं। यहाँ तो नौ-नौ ठो बच्चों वाले हैं, जिन्हें रोकने की जरूरत किसी ने नहीं समझी।
गरीब की जोरू सबकी भौजाई वाली कहावत आप सबने सुनी होगी,बस ग्राम पंचायत के चुनाव में दो से अधिक बच्चों वाले को चुनाव लड़ने से रोक दिया गया।
नेतागीरी को धंधा बनाने वालों की स्थिति हाथी के दांत की तरह है, खाने के लिए कुछ और दिखाने के लिए कुछ और।
इस देश का मालिक भगवान ही है, जब तक चुनाव सुधार नहीं होता, तब तक कोई उम्मीद नहीं। चुनाव सुधार सबसे पहली जरूरत है इस देश की। प्रत्याशियों के चयन में पारदर्शिता नाम की कोई चीज नहीं है। हत्या, बलात्कार,पॉकिटमार, तस्कर, देशद्रोह जैसे घृणित कार्यों में लिप्त लोग नेतागीरी के धंधे में सबसे उपयुक्त माने जाते हैं। जिसके पास दो नंबर का पैसा हो, वही नेतागीरी के बारे में सोच सकता है। खाए,पिए, अघाए लोगों के लिए यह पेशा रह गया है। जो लोग सुधार की बात करते हैं उन्हें आपराधिक प्रवृत्ति के नेता और उनके दलाल रास्ते से हटा देते हैं।
आज के समय में ग्राम पंचायत प्रधान यानी मुखिया के इलेक्शन में लाखों रुपये खर्च हो जाना आम बात है। हालात तो ऐसे हो चुके हैं कि हत्या तक होने लगी है। बहुत ही दुर्भाग्यपूर्ण स्थिति है,लेकिन न सत्ताधारी दल को चुनाव सुधार की फिक्र है और न ही विरोधियों को। कह सकते हैं कि चोर-चोर मौसेरे भाई इस मसले पर गले मिले हुए हैं। सबको पता है कि जिस दिन चुनाव सुधार लागू हो गया, प्रत्याशियों कज चयन और चुनाव खर्च में पारदर्शिता आ गई उस दिन से तीन-चैथाई समस्या अपने आप समाप्त हो जाएगी और देश विकसित देशों की कतार में सबसे आगे खड़ा होगा।
-हरेश कुमार

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