लेखक-हरेश कुमार, वरिष्ठ पत्रकार
2014 लोकसभा चुनाव से पहले नीतीश कुमार तीसरे मोर्चा का नेता बनने के चक्कर में भाजपा से 17साल पुराना गठबंधन तोड़कर अकेले चुनाव लड़ने चले थे। 1989 के बाद से 2014 तक पच्चीस साल में किसी भी पार्टी को बहुमत नहीं मिला था हालात यहां तक बन गए थे कि 16संसद सदस्यों वाली पार्टी के नेता एचडी देवगौड़ा ने प्रधानमंत्री पद को सुशोभित किया था,भले ही 11महीने ही रहे। 4-6सांसदों वाले मौसम वैज्ञानिक रामविलास पासवान रेल मंत्री बनने लगे थे। दक्षिण भारत की पार्टियां 15-20सांसदों के बलबूते संचार और वित्त मंत्रालय पर कब्जा जमाने लगी थी। उत्तर प्रदेश से समाजवादी पार्टी अपने 20-25सांसदों के बलबूते रक्षा मंत्री बन गए। ममता बनर्जी पश्चिम बंगाल में अपने सांसदों के बूते केंद्र में रेल मंत्री रहीं।
यही सब सोचकर नीतीश कुमार के सलाहकारों ने उन्हें भाजपा से नाता तोड़कर अपनी सुशासन बाबू की छवि को लेकर अकेले चुनाव मैदान में उतरने की सलाह दी होगी। इसके पीछे सोच यह थी कि तब उनकी पार्टी के पास 22सांसद थे और अगर किसी पार्टी को बहुमत न मिलता तो 22-25सांसदों के बलबूते आगे बनने वाली नीतीश कुमार केंद्र की सरकार में रेल और कृषि मंत्रालय पर दावा ठोक सकती थी। नरेंद्र मोदी पर मुस्लिम समुदाय के लोग मुखर विरोधी थे। अब तक होता आया था कि मुस्लिम एकजुट होकर जिसके साथ जाती थी, वही जीतता था।
मुस्लिम समुदाय के वोट के लिए नीतीश कुमार की सरकार के मंत्रीगण पाकिस्तान जाकर भारत में वोटरों को रिझाने की कोशिश की। नीतीश कुमार ने अपने स्तर पर हर तरह से प्रयास किया, ताकि अपने मौजूदा नंबर को ही बनाए रखें,लेकिन भारतीय मतदाताओं ने मन ही मन में नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में भाजपा की सरकार को बनाने का निर्णय ले लिया था। इसी का परिणाम हुआ कि लोकसभा परिणाम ने सबको चैंका दिया। नीतीश कुमार की पार्टी 22से महज दो सांसद पर आ गई। मोदी के नेतृत्व में केंद्र में भाजपा की बहुमत की सरकार बनने के बाद ही कांगियों- वामियों-मुल्लों और समाजवादियों ने देश में इन्टॉलरेंस (असहिष्णुता) का रोना रोने लगे। इस खेल में तथाकथित प्रगतिशील शुतुरमुर्गी वामियों और बॉलीवुड के खान ब्रिगेड ने खूब उछाला।
बिहार विधानसभा के चुनाव की आहट आते ही वामियों ने अवॉर्ड रिटर्न करना शुरू कर दिया। भाजपा से अलग होकर चुनाव लड़ने के बाद लोकसभा चुनाव में 22से 2सीट आने के बाद नीतीश कुमार को भी साथी की जरूरत थी। लालू प्रसाद यादव ऐसे ही मौके की तलाश में थे। फिर, दोनों एक साथ आए। नीतीश कुमार को जंगलराज की याद दिलाई गई तो लालू प्रसाद यादव को नीतीश के पुराने बोल याद कराए गए। हालांकि, दोनों को ही एक-दूसरे की जरूरत थी। लालू प्रसाद यादव ने अपने कार्यकाल के दौरान की गलतियों के लिए बिहार की जनता से माफी मांगी। बिहार की जनता ने भी भरोसा करके महागठबंधन को जीता दिया। इससे पहले लालू प्रसाद यादव ने भरी सभा में घोषणा की थी कि राजद को ज्यादा सीटें भी मिलेंगी तो भी सीएम नीतीश कुमार ही बनेंगे। सबकुछ ठीकठाक चलने लगा था। दो साल मिलाजुलाकर बीत गया।
हालांकि, अंदर ही अंदर नीतीश कुमार और लालू प्रसाद यादव एंड फैमिली में खटपट शुरू हो चुका था। अंदर ही अंदर राबड़ी देवी तेजस्वी यादव को मुख्यमंत्री पद पर देखना चाह रही थी। अब आधे-आधे टर्म की बात होने लगी। लालू प्रसाद यादव ने शहाबुद्दीन को आगे किया। शहाबुद्दीन नीतीश कुमार को परिस्थितियों का मुख्यमंत्री कहने लगे। सिवान जेल में राजद कोटे से चार-चार मंत्रियों की शहाबुद्दीन से मिलने जाने की फोटो बाहर आने लगी। इस कारण दैनिक हिन्दुस्तान के सिवान ब्यूरो प्रमुख राजदेव रंजन की हत्या कर दी गई। राज्य एकबार फिर से अशांति की राह पर चल निकला। लालू प्रसाद यादव नीतीश पर कटाक्ष करने लगे थे। वे नीतीश के टेट में दांत होने की बात कहने लगे तो नीतीश कुमार की ओर से चंदन विष व्याप्त नहीं लटके रहे भुजंग की बात होने लगी।
नीतीश और लालू के बीच एकबार फिर से तलवारें खिंच चुकी थीं। तभी सिखों के 350वें प्रकाशपर्व का कार्यक्रम पटना साहिब में आयोजित हुआ। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी कार्यक्रम में मुख्य अतिथि के रूप में उपस्थित थे। तत्कालीन केंद्रीय मंत्री रामविलास पासवान भी उस मंच पर थे। महागठबंधन की सरकार होते हुए भी लालू प्रसाद यादव एंड फैमिली से किसी को भी मंच पर जगह नहीं मिली और कुछ दिनों के बाद नीतीश कुमार एकबार फिर से भाजपाई के साथ आ गए थे। उन्हें लालू प्रसाद यादव एंड फैमिली के दबाव में काम करना गंवारा नहीं था।
नीतीश कुमार के कारण लालू प्रसाद यादव की फैमिली पार्टी जो पूरी तरह से खत्म होने के कगार पर आ चुकी थी,फिनिक्स पक्षी की तरह तनकर खड़ी हो गई। नीतीश कुमार के साथ होने के कारण लालू प्रसाद यादव की पार्टी चूहा से सिंह बन गई, जो नीतीश के हटते ही वापस उसी स्थिति में जाने को विवश है। जो लोग तेजस्वी का शोर मचा रहे, वे राज्य की जमीनी स्थिति को जानते हुए भी मोदी के अंधविरोध में मानसिक तौर पर बीमार हैं। जो व्यक्ति स्कूली पढ़ाई पूरी नहीं कर पाया, कभी कॉलेज-यूनिवर्सिटी का मुंह नहीं देखा और न ही कोई अनुभव है, वह दस लाख नौकरी देने की हवा-हवाई बातें ही करेगा। हां, इस बीच अपनी बेरोजगारी जरूर दूर कर लेगा।